Tuesday, February 3, 2009
सभ्य समाज की गंदगी
हमारे सभ्य शहरों की असभ्य सड़कों पर केवल मंहगी गाड़ियां ही गरीबों और बेसहारा बच्चों की जिंदगी को नहीं रौंदती है. भारतीय फुटपाथ पर जिंदगी बिताने वाले 55 प्रतिशत से अधिक बच्चे यौन प्रताड़ना का शिकार हैं. यौन शोषित इन बच्चों की उम्र 5 से 12 साल के बीच की है।
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के एक अध्ययन से यह पता चला है। यह अध्ययन देश के 13 राज्यों में 12 हजार 447 बच्चों पर किया गया है। जिन राज्यों में सर्वे हुआ है उनमें आंध्र प्रदेष, असम, बिहार, दिल्ली, गोवा, गुजरात, केरल, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, मिजोरम, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, और पश्चिम बंगाल हैं। यह खबर शायद सभी समाचारपत्र में नहीं छपी हो, पर खबर महत्पूर्ण मुद्दे की है। फुटपाथ पर जीवन बसर करने वाले तक सरकार अजादी के छह दशक बीत जाने पर भी नहीं पहुंच पाई। फुटपाथ पर बसर करने वालों की एक अच्छी तदात है।
जरा गौर करें 5 से 12 साल की बीच की उम्र ही क्या होती है। नन्हीं उम्र। समाज की अच्छी और बुरी बातों से अनजान उम्र। फुटपाथ पर रहने वाले कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ने के सपने भी नहीं देखते है। पर आजकल कॉन्वेंट स्कूलों के 12 साल के बच्चों को सेक्स की अच्छी-खासी समझ विकसित हो जाती है। यह उनके संगत का असर होता है। पर फुटपाथी बच्चे क्या करते है। कहीं भीख मांगते हैं, तो कहीं मजबूर मां-बाप के साथ दुत्कार भरी जिदंगी जीते हैं। ट्रेनों में यात्रियों के कचरे साफ कर पैसा मांगते हैं। कुछ समाान बेचते है। चैराहों पर रूकने वाली गाड़ियों के शीशे साफ कर अंदर बैठै व्यक्ति से कुछ देने की याचना करते है। इनका बसेरा यत्र-तत्र, अस्थायी होता है। इनका यौन शोषण कौन करता है। घनी बस्तियों और सभ्य समाज से दूर रहने वाले इन बच्चों के बीच कोई बाहर का व्यक्ति शायद ही इनका दुःख जानने समझने आता होगा। यह वर्ग समाज के मुख्य धारा से हमेषा कटा रहा है। साधारण-सी बात है। फुटपाथ पर ही जिंदगी गुजर-बसर करने वाले वयस्क ही इनका यौन शोषण करते हैं।
यहां की बात यहीं रह जाती है। सभ्य समाज इन्हें गंदगी मानता है। गंदगी में घिनौने कृत्य के कौन-कौन से बुलबुले उग रहे हैं, इससे सभ्य समाज को मतलब नहीं है। पर इसका मतलब यह नहीं कि हम इसके प्रति आंख मूंद लें। छोटी-छोटी अपराधिक गतिविधियों को अंजाम देते-देते फुटपाथ के कई बच्चे वयस्क होते-होते बडे़ अपराधी बन जाते हैं। फुटपाथ से हट कर आम आदमी को बीच पहुंच कर असमाजिक गतिविधियों को अंजाम देते है।
स्लम इलाकों के बच्चों को पढ़ा-लिखा कर समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए कई स्वयंसेवी संस्थाएं सक्रिय हंै। सरकार अनुदान भी देती है। पर फुटपाथ पर जीवन गुजर बसर करने वाले हमेषा उपेक्षित रहे हैं। कितने बच्चे फुटपाथ पर जीवन गुजारते हैं, इसका अनुमानित आंकड़ा मिल सकता है, प्रमाणिक नहीं। कभी-कभार खबरें आती हैं कि स्थनीय निकाय विशेषकर महानगर पालिका, जिला पंचायत ऐसे घुमंतु बच्चों को पढ़ा कर समाज से मुख्य धारा से जोड़ने की योजना बनाती है। फंड तय होता है। बच्चों का सर्वे होता है। योजना को कार्यरूप देने की शुरूआत से पहले ही वित्तिय वर्श समाप्त हो जाता हैं। फिर सब कुछ नये सिरे से शुरू करने की बात की जाती है। इसी बीच सर्वे और पढ़ाने की पहल तक निर्धारित फंड का काफी पैसा खर्च हो चुका रहता है। सरकार एनजीओ के माध्यम से भी ऐसे बच्चों के कल्याण पर भारी भरकम राशि लुटा रही है। सब कुछ चलता रहता है, पर सकारात्मक कुछ भी नहीं होता हैं।
ऐसे बच्चों को का भला तब तक नहीं होगा, तब सरकार इनके जिम्मेदार अभिभावकत्व के रूप में सामने न आए। समाज कल्याण विभाग देष के कई जिलों में छोटे और बड़ों बच्चों के लिए अवासीय व्यवस्था उपलब्ध कराता है। पढ़ाता है। फुटपाथी बच्चों के लिए यह वरदान साबित हो सकता है, पर इसका लाभ नहीं मिल पा रहा हैं। ऐसे सरकारी आश्रय में गरीब बच्चे तो रहते हैं, पर पर फुटपाथी बच्चे नहीं। यदि इन बच्चों को कोई स्वयंसेवी सरकारी आश्रय में पहुंचाना भी चाहे तो वह सफल नहीं हो सकता है, क्योकि ऐसे आश्रय में जाति वर्ग में दायरे में आने की खास बंदिषे हैं। यदि फुटपाथी संबंधित जाति का भी हो, तो प्रमाणपत्र किस आधार पर बनेगा। इन बच्चों के अभिभावकों के पास न तो राषनकार्ड होता है और न ही मतदाता पहचान पत्र। देष के प्रखंड और तहसील कार्यालयो में आसानी से ऐसे प्रमाणपत्र बनते भीन हीं है। अब, जब मंत्रालय ने ऐसे बच्चों पर सर्वे करकार कड़वी सच्चाई को जान लिया है, तो बिना शर्त इनकी समुचित परवरिश के लिए ठोस कदम उठाये। जिससे कि इनका अब और यौन शोषण नहीं और ये बड़े होकर मन में कुंडा लिए समाज से अलग रहकर समाज और देश के लिए घातक नागरिक न बनें।
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