Monday, November 15, 2010
बाल दिवस पर चाचा नेहरू की आत्मा का दर्द
बाल दिवस पर चाचा नेहरू की आत्मा का दर्द
बाल दिवस पर चाचा नेहरू की आत्मा का दर्द .. बाल दिवस बाल दिवस बच्चों का त्यौहार है। इस दिन देष भर में बच्चों के अच्छे स्वास्थय, उज्जवल भविष्य, उच्च षिक्षा, विकास की कामना की जाती है। बच्चों के लिए यह दिन आनंद और मौज मस्ती का दिन है। बाल दिवस पंडित जवाहर लाल नेहरू के जन्मदिन पर मनाया जाता है। नेहरू जी का जन्म 14 नवम्बर 1889 को हुआ था। उन्हे बच्चों से बहुत प्रेम था। यह दिन उनको श्रद्वांजिली के रूप में अर्पित है। नेहरू जी ने अपने जीवन के कीमती पल बच्चों के साथ बिताएं है। नेहरू जी का मानना था कि बच्चे ही देष का भविष्य है। खुष और स्वस्थय बच्चे ही भविष्य में एक मजबूत राश्ट्र का निर्माण कर सकते हैं। बच्चे भी उनसे बेहद प्रेम करते थे। बच्चे उन्हे प्यार से चाचा नेहरू कहकर पुकारते थे। एक बार नेहरू तमिलनाडु के दौरे पर थे और बच्चे नेहरू जी को देखने के लिए बेताव थे । वे उन्हें देखने के लिए पेड़ो पर चढ़े हुए थे। चाचा नेहरू ने यह देख पास में खड़े गुब्बारे वाले से गुब्बारे खरीद कर सभी बच्चों में बांट दिए। यह उनके जीवन का वो क्षण था जो बच्चों और नेहरू के आपसी प्रेम को दर्षाता है। बच्चो के लिए उनकी आॅखों में असीम प्रेम झलकता था। वो बच्चों के साथ हमेषा खेलने के लिए आतुर रहते थे। वे अक्सर बच्चो के बारे में कहा करते थे कि अगर तुमको भारत का भविष्य जानना है तो बच्चों की आंखों में देखो..... अगर उनकी आंखों में निराषा, भय, दर्द है तो देष भी उसी दिषा मे जायेगा अर्थात देष का भविष्य भयावह व कमजोर होगा। अगर देष का भविष्य उज्जवल बनाना है तो इन बच्चों को सभी सुविधाएं, प्यार, और अच्छा वातावरण दो.........
...... एक दिन चाचा नेहरू अपने निवास स्थान के बगीचे में टहल रहे थे तभी उन्हें छोटे बच्चे के रोने की आवाज़ सुनाई दी। नेहरू जी ने इधर उधर देखा तो एक पेड़ के नीचे चार पांच माह का बच्चा जोर जोर से रो रहा था। वो अकेला था उसके आस पास कोई नही था। नेहरू जी ने मन में सोचा कि सायद इसकी मां बगीचे में माली के साथ काम कर रही होगी तभी उसे यहां रखकर चली गई है। बच्चे को रोता देख नेहरू जी से रहा नही गया और उस बच्चे को अपनी बांहों में उठाकर झुलाने लगे जिससे बच्चा चुप हो गया और मुस्कुराने लगा। जब बच्चे की मां वापस आई तो उसे विष्वास नही हुआ कि उसका बच्चा चाचा नेहरू की गोद में खेल रहा है। चाचा नेहरू किसी बच्चे को रोता हुआ नही देख सकते थे।
चाचा नेहरू के कोट पर लगा गुलाब का फूल भी यही कहता है कि चाचा नेहरू आप बच्चों को बहुत प्यार करते हो....... दरअसल एक दिन एक बच्चे ने उनके कोट पर यह गुलाब का फूल लगाया था और तभी से गुलाब को उन्होनें अपने दिल से लगा कर रखा। ये उनका जुनून ही था बच्चों के प्रति प्रेम भाव का..............आज वो गुलाब का फूल उनके व्यक्तित्व की पहचान बन गया है बिना गुलाब के फूल के नेहरू जी का चित्र अधूरा ही लगेगा।
बाल दिवस मनाने का उदेष्य है कि देष के सभी बच्चों को सुख सुविधाएं, विकास योजनाए, षिक्षा व प्यार दिया जाये। परन्तु आज देष के वातावरण को देखकर कहीं न कही नेहरू जी की आत्मा रो रही होगी.............. क्योंकि आज उनके देष का भविष्य सड़कों के प्रत्येक कोनो में भीख मांग रहा है, कूड़ा कचरा बिन रहा है, कुपोषण का षिकार हो रहा है, दर दर भटक रहा है। नेहरू जी के मुताबिक बच्चों की आंखों में देखने से देष का भविष्य नजर आता है अगर इन बच्चों की आंखों में देखा जाये तो हमें इस देष का भविष्य अंधकारमय ही नजर आता है।
हमारे देष में दो वर्ग के बच्चे हैं एक वो जो खुषहाल जिन्दगी व्यतीत करते हैं और दूसरे वो जो सड़को पर ठोकरे खाते फिरते हैं। मैने इन दोनो जिन्दगी के बचपन को जानना चाहा... मैने देखा दोनो वर्ग के बचपन में हाथ भरे है। दोनो को जिन्दगी ने बहुत कुछ दिया। जहां एक जिंदगी के हाथ में सुख था वहीं दूसरी जिन्दगी के हाथ में दुख............
मैने बात की डा विकास से जो एक खुषहाल जिन्दगी व्यतीत कर रहें हैं। मैने उनसे उनके बचपन के बारे में पूछा। ‘बचपन’ सुनते ही उनके चहरे पर एक खुषी की लहर छा गई। आंखो में एक चमक आ गई। उन्होने बताया कि मेरा बचपन प्यार, खुषी और मौज मस्ती से भरा हुआ था। परिवार बालों का प्यार, स्कूल, काॅपी किताब सब था। बहुत से खिलौने, खाना पीना, नये कपड़े बहुत मजा आता था। बचपन के प्यार और सुख सुविधाओं से ही मैं आज इस मुकाम पर हूॅ। काष मैं दोवारा बचपन में जा पाता। तो यह थी खुषहाल बचपन की कहानी.......
वहीं जब मैने दूसरे वर्ग यानी सड़क पर भीख मांगने वाले रामू से उसके बचपन के बारे में पूछा तो यह सुन उसकी आंखें भर आई। उसने बताया पैदा होते ही वह अपनी माॅ के काम आया मुझे हाथ में लेकर लोगों की दया से उसे भीख मिलती थी। जब थोड़ा बड़ा हुआ तो मेरे हाथ में था भीख का कटोरा...., लोगों की गालियां...., फटे पुराने कपड़े....., सोने के लिए फुटपाथ....., पुलिस की लात....., लोगों से पैसे निकलवाने के लिए सरीर से खिलवाढ़, खाने में झूट्न यही मिला बचपन मे मुझे... और रही बात आज की तो आप देख सकती हैं कि आज भी मैं यहीं हूॅ उन्ही हालातों में और हमारा भविष्य है ये हमारे साथ भीख मांगते बूढ़े काका... सरकार ने तो हमारे विकास के लिए बहुत कुछ किया है जहां पहले छोटे छोटे बाजारों में भीख में एक व्यक्ति से 1 या 2 रूपये मिलते थे बही आज जगह जगह इतने बड़े माॅल, होटल, बन गये है जहा हमें 5 या 10 रूपये मिल जाते है। यही हैं हमारे प्रति हमारी सरकार के विकास कार्य........
यह देख और सुनकर जब मेरी आंखो में आंसु आ गये तो नेहरू जी की आत्मा पता नही किस कोने में सिसकियां भर रही होगी। यह एक विडम्बना ही है कि देष का एक बड़ा वर्ग सड़को पर भटक रहा है जिसके कारण ये बच्चे षिकार होते है कुपोष्ण के, बुरी संगत के, नषे के, खराब स्वास्थ के....
घर घर जाकर सभी बच्चों को पोलियो, टेटनस, खसरा, आदि के टीके लगाये जाते है। क्या कभी सड़को पर भटक रहे इन बच्चो को भी ये टीके लगते हैं ? इन बच्चो के पास ना कोई घर है ना ठिकाना ये बच्चे अगर आज षहर के एक कोने में नजर आयेंगे तो कल दूसरे कोने में दिखाई पड़ते हैं। इन बच्चों का मुख्य संकट गरीबी है। क्यों इनके परिवार बालों को कोई काम मुहैया नही कराया जाता हैं ? जिससे ये बच्चे घरों में रह सके, अच्छा खाना खा सके, स्कूल जा सकें और स्वस्थ जीवन वयतीत कर सकें।
मेरा सरकार से एक ही सवाल है ‘बाल दिवस’ या अन्य षुभ अवसरों पर बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए अनेको योजनाओं की धोश्णाए होती है। फिर क्यों बाद में इन्हें ठण्डे बस्ते में डाल दिया जाता है ? ये योजनाएं क्यों कार्यरत नही होती।
देष की गरीबी सिर्फ किसी गरीब की कुटिया में खाना खाने से दूर नही होती। देष की गरीबी दूर होती है तो गरीब के दुखों को सुखों में परिवर्तित करने से...... जो खाना आपको खिलाया गया वो कितने दुखों के भोग से उस गरीब को मिला इस बात को समझने से...........
अगर भगवान कृष्ण की भाॅति गरीब सुदामा के चावल खाना जानते हो तो उसके बदले वो सुख भी देना सीखो जो भगवान कृष्ण ने सुदामा को दिये थे........
‘बाल दिवस’ की सार्थकता तभी पूरी होगी जब सड़कों पर बच्चे नजर तो आयेंगे लेकिन भीख मांगते हुए नही बल्कि बस्ता टांगे स्कूल को जाते हुए। उस दिन मिलेगी चाचा नेहरू की आत्मा को खुशी।
Monday, April 12, 2010
क्या होगा लडकों का
क्लास के 100 बच्चों में दर कुंवारे
कालेज के 1000 छात्रों में 100 रहेंगे कुंवारे
प्रदेश में एक करोड युवक शादी योग्य
दस लाख को नही मिलेगी दुल्हन
क्या होगा लडकों का
सेक्स रेशो में भारी गिरावट
2020 से 2030 के बीच लडकियों की संख्या आधी तक गिर सकती है
उल्टा दहेज देंने की नौबत
प्रदेश में लाखों लडके कुंवरे बैठे
नही मिल रही वधू
100 में से 10 लडके कुवारें रहेंगे
प्रदेश में लाखों लडके नही बांध पाऐंगे सेहरा
लडकों को शादी की चिंता
लडकियों की कमी
सामाजिक तानाबाना बिखरेगा
क्या करेंगे लाखों कुंवारे
क्या लेंगे सन्यास या एक लडकी से होगी दो लडकों की शादी या फिर संमलैंगिकता बढेगी या करेंगे अपराध
समाज के सामने कई सवाल
सोनोग्राफी का नतीजा आना बाकी
लडकियों की पेट में हत्या का असर आना बाकी
2010 में लडकियों की तादात आधी रह जाएगी
2010 में आधे लडके कुंवारे रहेंगे
अभी भी हालात बिगडे
युवाओं को नही मिल रही शादी योग्य युवतियां
लडकों के लिए खतरे की घंटी बज गई है। मां बाप परेशान हैं लडका शादी के लायक हो गया है लेकिन ढूंढे से भी नही मिल रही बहू। पांच पांच लडके बैठे है बिना शादी के। ये भविष्य के नही वर्तमान के हालात हैंे जी हां लाखों लडकों को शादी के लिए दुल्हन का इंतजार है। हजारों लडके 40 के बाद भी कुंवारे हैं। प्रदेश में लडकियों की संख्या हजार पर नौसौ से भी कम हैं। येे हालात तब है जब 20 साल पहले भ्रण परीक्षण की सुविधा नही थी गर्भ में ही लडकियों की पहचान संभव नही थी। आधुनिक तकनीक के चलते लडकियांे की भ्रूण हत्या के नतीजे तो अभी आना बाकी है। पिछले दस सालों में इस तकनीक से जो हुआ है उसका अनुमान लगाया जाए तो 2020 में लडकियों की तादात 1000 पर 500 से 700 से ज्यादा नही रहेगी ये हो चुका है इसलिए तैयार रहिए 2020 में दुल्हन ढूंढे से नही मिलेगी ऐंसे में सामाजिक तानाबाना बिगडेगा अराजकता फैलेगी।
लडकियांे के दिन फिरने वाले हैं अब दहेज के लिए कोई उन्हे परेशान नही करेगा अब दुल्हनों को ससुराल से नही भगाया जाऐगा। मां बाप को लडकी की शादी की चिंता नही सताऐेगी। पति पत्नियों को घर से निकाल दूसरी शादी करने की धमकी नही देंगे अब वाकई नारियां पुजेगी दहेज लडके वाले नही लडकी वाले देंगे ! लडकियों को शायद ये हसीन सपना लगे लेकिन ये सपना नही है हकीकत बनते जा रहा है। जी हां वक्त बदल गया है दुल्हन बनने वाली लडकियों का टोटा पड गया है जनसंख्या की गणना अभी जारी है अगले साल देख लीजिए नतीजे क्या आते है लेकिन हम आपको अभी से अनुमानित आंकडा बता देते हैं लडकियों की संख्या 1000 लडकों पर 900 से कम हो चुकी है शायद वास्तविक हालात इससे भी ज्यादा चैकाने वाले है। जाहिर सी बात है प्रदेश के शादी योग्य एक 50 लाख लडकों में से 5 लाख को शादी के लिए दुल्हन नही मिल रही । एक रिसर्च बता रही है कुवारे लडकों की उम्र बढती जा रही है 40 , 40 साल के लडके कुंवारे बैठे है मा बाप मैरिज ब्यूरो के चक्कर काट रहे हैंे अखबारों में विज्ञापन दे रहे है लेकिन वधू नही मिल रही वैवाहिकी मै शादी योग्य लडकियों के लिए वर चाहिए के विज्ञापन कम होते जा रहे है और वधू चाहिए के विज्ञापन बढते जा रहे हैं। आपके जहन में ये सवाल जरूर आ रहा होगा कि 1991 और 2001 की जनगणना में भी लडकिया लडकों की तुलना में कम थी तब ऐंसे हालात क्यू पैदा नही हुए अब इसे जरा साइंटीफिक तरीके से समझने की कोशिश कीजिए। दरअसल 1991 की जनगणना के मुताबिक 1000 पर 945 लडकियां थी लेकिन उस वक्त शादी योग्य युवक युवतियों का अनुपात बराबर था उस वक्त अंतर बच्चे बच्चियों के अनुपात में था । 2001 में 1000 पर 927 लडकियां रह गई तब भी शादी योग्य युवतियों का अनुपात लगभग बराबर था लेकिन इसका असर अब दिख है क्योंकि ये बच्चे बडे हो गए और शादी योग्य युवक युवतियों का अनुपात 1991 और 2001 की तुलना में बराबर नही बल्कि 1000 पर 900 के लगभग पहुच गया है । अब अपने आस पास देखिए कितने लडके कुंवारे हैं और कितनी लडकिया अंतर साफ समझ आऐगा। अब सवाल ये उठता है कि 2010 में लडकियों की तादाद इतनी क्यों गिरी क्योंकि 1970 से 1980 के दशक में तो पेट में लडके लडकियों पहचान कर लडकियों को गर्भ में मार देने की तकनीक ही नही थी ये बिल्कुल सही है लेकिन तब तक नसबंदी शुरू हो चुकी थी लोगों ने इसका फायदा उठाया एक या दो लडके हुए तो नसबंदी करा ली और लडकियों को पैदा ही नही होने दिया इसी से 1000 पर 900 लडकियां रह गई। सोनोग्राफी से लडकियों की पहचान कर लडकियांे की भ्रण हत्या का असर तो अगली पीढी देखेगी अनुमान है कि आच के बच्चे जब युवा हांेंगे तो लडकिया की तादात 1000 लडकों पर 500 से 700 के बीच ही रह जाऐगी । ये हालात माथे पर सिलवटें डालने वाले है और आने वाले समय मै सामाजिक ढांचे को ही खतरें में डाल सकते हैं। हमारे भारतीय समाज में लड़कियों से भेदभाव रखने की मानो एक परंपरा रही है, कम से कम मध्यकाल से तो ऐसा है ही। तब लड़कियों को जन्म के समय ही मार दिया जाता था और ज्यादातर पुरूष युद्ध में मारे जाते थे। इस तरह बहुत हद तक जनसंख्या लिंगानुपात सामान्य बना रहता था। नवजात लड़कियों से छुटकारा पाने के लिए जहर देना या भूसे के ढेर पर दम घुटने के लिए छोड़ देना कुछ पारंपरिक तरीके थे। इन तरीकों का की जगह सोनोग्राफी आदि जैसी उच्च चिकित्सा तकनीकों ने ले लिया है, जिनसे पता चलता है कि कोख में पलने वाले बच्चे का लिंग क्या है। नतीजतन किसी नवजात की हत्या नहीं करनी पड़ती, भूण हत्या से ही काम चला लिया जाता है। इससे जनसंख्या लिंगानुपात में बड़ा अंतर आ गया है, जिसके नतीजे निश्चित तौर पर सुखद नहीं हैं।
सन 2001 की जनगणना में जनसंख्या का लिंगानुपात 933 महिलाएं प्रति 1000 पुरूष था। 1991 से 2001 में बच्चों के लिंगानुपात में गिरावट आई है। जो अनुपात 1991 में 945 लड़कियां प्रति 1000 लड़का था जो घटकर 2001 में 927 लड़कियां प्रति 1000 लड़कों तक रह गया। कुछ राज्यों में जनसंख्या के लिंगानुपात और राष्ट्रीय जनसंख्या लिंगानुपात में आश्चर्यजनक रूप से अंतर है। जैसे, पंजाब-798, हरियाणा 819 दिल्ली 688 गुजरात 883 हिमाचल 896 उत्तरांचल 908 राजस्थान 909 महाराष्ट्र 913 और मध्य प्रदेश में 919 महिलाएं प्रति 1000 पुरूष। लिंगानुपात में आ रही यह गिरावट कितनी चिंताजनक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां 1991 में 800 से कम के लिंगानुपात वाला एक भी जिला नहीं था, वहीं 2001 में ऐसे जिलों की संख्या 14 है। इसी तरह पहले ऐसा एकमात्र जिला था जहां लिंगानुपात 800 से 850 के बीच में था लेकिन ऐसे जिले 31 हो गए हैं। देश के 116 जिलों में यह अनुपात 900 से कम है। इस तरह के चलन को सोनोग्राफी जैसी सुविधाओं ने एक अतिरिक्त गति दे दी है। सोनोग्राफी जैसी सुविधाएं लोगों को आसानी से मिल भी जाती हैं। यहां तक कि यह मध्यप्रदेश के सुदूर जिले मुरैना में भी उपलब्ध है। मई, 2005 में इस जिले के सभी गांवो में घर-घर किए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि यहां का लिंगानुपात चिंताजनक स्थिति तक पहुंच गया है। मध्यप्रदेश के बारह जिलों में बाल लिंगानुपात 900 के नीचे जा पहुंचा है, लेकिन इंदौर जिला दुनिया की आधी आबादी के लिए उम्मीद जगा रहा है, जहां पिछले चार साल में बाल लिंगानुपात 836 से बढ़कर 912 हो गया है। बेटियों की कोख में ही हत्या के मामले में मध्यप्रदेश पंजाब और हरियाणा के समकक्ष पहुंचता जा रहा है। इन राज्यों में लड़कियों की लगातार घटती संख्या चिंता का विषय बनी हुई है। श्मध्यप्रदेश के बारह जिलों में प्रति हजार बालकों पर 900 से कम बालिकाएं हैं। कन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक समस्या है, जिसके दुष्परिणाम लगातार सामने आ रहे हैं। फिलहाल 2011 के लिए जनगणना का काम शुरू हो चुका है जिसके नतीजे चैकाने वाले ही होगे।
अतुल पाठक
कालेज के 1000 छात्रों में 100 रहेंगे कुंवारे
प्रदेश में एक करोड युवक शादी योग्य
दस लाख को नही मिलेगी दुल्हन
क्या होगा लडकों का
सेक्स रेशो में भारी गिरावट
2020 से 2030 के बीच लडकियों की संख्या आधी तक गिर सकती है
उल्टा दहेज देंने की नौबत
प्रदेश में लाखों लडके कुंवरे बैठे
नही मिल रही वधू
100 में से 10 लडके कुवारें रहेंगे
प्रदेश में लाखों लडके नही बांध पाऐंगे सेहरा
लडकों को शादी की चिंता
लडकियों की कमी
सामाजिक तानाबाना बिखरेगा
क्या करेंगे लाखों कुंवारे
क्या लेंगे सन्यास या एक लडकी से होगी दो लडकों की शादी या फिर संमलैंगिकता बढेगी या करेंगे अपराध
समाज के सामने कई सवाल
सोनोग्राफी का नतीजा आना बाकी
लडकियों की पेट में हत्या का असर आना बाकी
2010 में लडकियों की तादात आधी रह जाएगी
2010 में आधे लडके कुंवारे रहेंगे
अभी भी हालात बिगडे
युवाओं को नही मिल रही शादी योग्य युवतियां
लडकों के लिए खतरे की घंटी बज गई है। मां बाप परेशान हैं लडका शादी के लायक हो गया है लेकिन ढूंढे से भी नही मिल रही बहू। पांच पांच लडके बैठे है बिना शादी के। ये भविष्य के नही वर्तमान के हालात हैंे जी हां लाखों लडकों को शादी के लिए दुल्हन का इंतजार है। हजारों लडके 40 के बाद भी कुंवारे हैं। प्रदेश में लडकियों की संख्या हजार पर नौसौ से भी कम हैं। येे हालात तब है जब 20 साल पहले भ्रण परीक्षण की सुविधा नही थी गर्भ में ही लडकियों की पहचान संभव नही थी। आधुनिक तकनीक के चलते लडकियांे की भ्रूण हत्या के नतीजे तो अभी आना बाकी है। पिछले दस सालों में इस तकनीक से जो हुआ है उसका अनुमान लगाया जाए तो 2020 में लडकियों की तादात 1000 पर 500 से 700 से ज्यादा नही रहेगी ये हो चुका है इसलिए तैयार रहिए 2020 में दुल्हन ढूंढे से नही मिलेगी ऐंसे में सामाजिक तानाबाना बिगडेगा अराजकता फैलेगी।
लडकियांे के दिन फिरने वाले हैं अब दहेज के लिए कोई उन्हे परेशान नही करेगा अब दुल्हनों को ससुराल से नही भगाया जाऐगा। मां बाप को लडकी की शादी की चिंता नही सताऐेगी। पति पत्नियों को घर से निकाल दूसरी शादी करने की धमकी नही देंगे अब वाकई नारियां पुजेगी दहेज लडके वाले नही लडकी वाले देंगे ! लडकियों को शायद ये हसीन सपना लगे लेकिन ये सपना नही है हकीकत बनते जा रहा है। जी हां वक्त बदल गया है दुल्हन बनने वाली लडकियों का टोटा पड गया है जनसंख्या की गणना अभी जारी है अगले साल देख लीजिए नतीजे क्या आते है लेकिन हम आपको अभी से अनुमानित आंकडा बता देते हैं लडकियों की संख्या 1000 लडकों पर 900 से कम हो चुकी है शायद वास्तविक हालात इससे भी ज्यादा चैकाने वाले है। जाहिर सी बात है प्रदेश के शादी योग्य एक 50 लाख लडकों में से 5 लाख को शादी के लिए दुल्हन नही मिल रही । एक रिसर्च बता रही है कुवारे लडकों की उम्र बढती जा रही है 40 , 40 साल के लडके कुंवारे बैठे है मा बाप मैरिज ब्यूरो के चक्कर काट रहे हैंे अखबारों में विज्ञापन दे रहे है लेकिन वधू नही मिल रही वैवाहिकी मै शादी योग्य लडकियों के लिए वर चाहिए के विज्ञापन कम होते जा रहे है और वधू चाहिए के विज्ञापन बढते जा रहे हैं। आपके जहन में ये सवाल जरूर आ रहा होगा कि 1991 और 2001 की जनगणना में भी लडकिया लडकों की तुलना में कम थी तब ऐंसे हालात क्यू पैदा नही हुए अब इसे जरा साइंटीफिक तरीके से समझने की कोशिश कीजिए। दरअसल 1991 की जनगणना के मुताबिक 1000 पर 945 लडकियां थी लेकिन उस वक्त शादी योग्य युवक युवतियों का अनुपात बराबर था उस वक्त अंतर बच्चे बच्चियों के अनुपात में था । 2001 में 1000 पर 927 लडकियां रह गई तब भी शादी योग्य युवतियों का अनुपात लगभग बराबर था लेकिन इसका असर अब दिख है क्योंकि ये बच्चे बडे हो गए और शादी योग्य युवक युवतियों का अनुपात 1991 और 2001 की तुलना में बराबर नही बल्कि 1000 पर 900 के लगभग पहुच गया है । अब अपने आस पास देखिए कितने लडके कुंवारे हैं और कितनी लडकिया अंतर साफ समझ आऐगा। अब सवाल ये उठता है कि 2010 में लडकियों की तादाद इतनी क्यों गिरी क्योंकि 1970 से 1980 के दशक में तो पेट में लडके लडकियों पहचान कर लडकियों को गर्भ में मार देने की तकनीक ही नही थी ये बिल्कुल सही है लेकिन तब तक नसबंदी शुरू हो चुकी थी लोगों ने इसका फायदा उठाया एक या दो लडके हुए तो नसबंदी करा ली और लडकियों को पैदा ही नही होने दिया इसी से 1000 पर 900 लडकियां रह गई। सोनोग्राफी से लडकियों की पहचान कर लडकियांे की भ्रण हत्या का असर तो अगली पीढी देखेगी अनुमान है कि आच के बच्चे जब युवा हांेंगे तो लडकिया की तादात 1000 लडकों पर 500 से 700 के बीच ही रह जाऐगी । ये हालात माथे पर सिलवटें डालने वाले है और आने वाले समय मै सामाजिक ढांचे को ही खतरें में डाल सकते हैं। हमारे भारतीय समाज में लड़कियों से भेदभाव रखने की मानो एक परंपरा रही है, कम से कम मध्यकाल से तो ऐसा है ही। तब लड़कियों को जन्म के समय ही मार दिया जाता था और ज्यादातर पुरूष युद्ध में मारे जाते थे। इस तरह बहुत हद तक जनसंख्या लिंगानुपात सामान्य बना रहता था। नवजात लड़कियों से छुटकारा पाने के लिए जहर देना या भूसे के ढेर पर दम घुटने के लिए छोड़ देना कुछ पारंपरिक तरीके थे। इन तरीकों का की जगह सोनोग्राफी आदि जैसी उच्च चिकित्सा तकनीकों ने ले लिया है, जिनसे पता चलता है कि कोख में पलने वाले बच्चे का लिंग क्या है। नतीजतन किसी नवजात की हत्या नहीं करनी पड़ती, भूण हत्या से ही काम चला लिया जाता है। इससे जनसंख्या लिंगानुपात में बड़ा अंतर आ गया है, जिसके नतीजे निश्चित तौर पर सुखद नहीं हैं।
सन 2001 की जनगणना में जनसंख्या का लिंगानुपात 933 महिलाएं प्रति 1000 पुरूष था। 1991 से 2001 में बच्चों के लिंगानुपात में गिरावट आई है। जो अनुपात 1991 में 945 लड़कियां प्रति 1000 लड़का था जो घटकर 2001 में 927 लड़कियां प्रति 1000 लड़कों तक रह गया। कुछ राज्यों में जनसंख्या के लिंगानुपात और राष्ट्रीय जनसंख्या लिंगानुपात में आश्चर्यजनक रूप से अंतर है। जैसे, पंजाब-798, हरियाणा 819 दिल्ली 688 गुजरात 883 हिमाचल 896 उत्तरांचल 908 राजस्थान 909 महाराष्ट्र 913 और मध्य प्रदेश में 919 महिलाएं प्रति 1000 पुरूष। लिंगानुपात में आ रही यह गिरावट कितनी चिंताजनक है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जहां 1991 में 800 से कम के लिंगानुपात वाला एक भी जिला नहीं था, वहीं 2001 में ऐसे जिलों की संख्या 14 है। इसी तरह पहले ऐसा एकमात्र जिला था जहां लिंगानुपात 800 से 850 के बीच में था लेकिन ऐसे जिले 31 हो गए हैं। देश के 116 जिलों में यह अनुपात 900 से कम है। इस तरह के चलन को सोनोग्राफी जैसी सुविधाओं ने एक अतिरिक्त गति दे दी है। सोनोग्राफी जैसी सुविधाएं लोगों को आसानी से मिल भी जाती हैं। यहां तक कि यह मध्यप्रदेश के सुदूर जिले मुरैना में भी उपलब्ध है। मई, 2005 में इस जिले के सभी गांवो में घर-घर किए गए एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि यहां का लिंगानुपात चिंताजनक स्थिति तक पहुंच गया है। मध्यप्रदेश के बारह जिलों में बाल लिंगानुपात 900 के नीचे जा पहुंचा है, लेकिन इंदौर जिला दुनिया की आधी आबादी के लिए उम्मीद जगा रहा है, जहां पिछले चार साल में बाल लिंगानुपात 836 से बढ़कर 912 हो गया है। बेटियों की कोख में ही हत्या के मामले में मध्यप्रदेश पंजाब और हरियाणा के समकक्ष पहुंचता जा रहा है। इन राज्यों में लड़कियों की लगातार घटती संख्या चिंता का विषय बनी हुई है। श्मध्यप्रदेश के बारह जिलों में प्रति हजार बालकों पर 900 से कम बालिकाएं हैं। कन्या भ्रूण हत्या एक सामाजिक समस्या है, जिसके दुष्परिणाम लगातार सामने आ रहे हैं। फिलहाल 2011 के लिए जनगणना का काम शुरू हो चुका है जिसके नतीजे चैकाने वाले ही होगे।
अतुल पाठक
Sunday, April 11, 2010
Monday, February 1, 2010
बच्चों की भडास
बच्चों की भडास चिल्ड्रन्स डे पर भोपाल में आयोजित एक कार्यक्रम में प्रदेश भर के करीब 14 जिलांे के दलित बच्चे एक मंच पर इकट्ठा हुए। अपनों के बीच बच्चों की हिम्मत बढ़ी ओर इसके बाद उन्होंने अपने साथ हो रहे अन्याय को बताना शुरू कर दिया। होशंगाबाद जिले के ईश्पुर में रहने वाले यशवंत कुमार ने बताया कि दलित होने के कारण उसे मध्यान भोजन की रोटी फैंक कर दी जाती है। गांव में भी उससे लोग छुआ छूत करते हैं। मुरैना की रहने वाली नीता छारी का दर्द ये था कि उसे काफी प्रयासों के बाद भी स्कालरशिप नहीं मिल सकी। होशंगाबाद का नीलेश अपने समाज के उत्थान के लिए बच्चों को स्कूल जाने के लिए प्रेरित कर रहा है। इन बच्चों की पीड़ा ने ये जाहिर कर दिया कि तमाम सरकारी प्रयासों के बाद आज भी दलित वर्ग के छात्र छूआछत ओर दूसरी समस्याओं से ग्रसित हैं। आजादी के साठ साल बाद भी ये अपने संवैधानिक हक से महरूम हैं। आजादी के समय सन 1951 में दलित साक्षरता की दर 1 ़ 90 प्रतिशत थी जबकि गैर दलितों में 18 ़ 33 प्रतिशत साक्षरता दर थी। उस समय साक्षरता प्रतिशत का अंतर 16 प्रतिशत था। आज वर्ष 2001 की स्थिति में 54 ़69 प्रतिशत दलित साक्षर हैं ओर गैर दलितों का ये प्रतिशत 64 ़84 है। यानि आज भी दलित ओर गैर दलितों के बीच 10 ़45 प्रतिशत का अंतर है। कहने का मतलब ये कि इतने सालों में केवल 8 प्रतिशत की ही खाई पाटी जा सकी। मध्य प्रदेश के दलित बच्चों में यदि शिक्षा की स्थिति देखी जाए तो 45 प्रतिशत बच्चे कक्षा पांचवी तक पहुंचते पहुंचते स्कूल छोड़ देते हैं। शेष में से भी 45 प्रतिशत बच्चे कक्षा 6 वीं से 8 वीं तक आते आते स्कूल छोड़ देते हैं। शेष बचे 10 प्रतिशत बच्चों में से भी केवल 1 या 2 प्रतिशत बच्चे ही उच्च शिखा तक पहुंच पाते हैं। इस प्रकार दलित ग्रामीण क्षेत्र में आज भी बच्चे शाला में दर्ज तो होते हैं परंतु शिक्षा पूरी नहीं कर पाते।
बाल नियोजको की शवयात्रा
14 साल से कम उम्र के बच्चों से मजदूरी करवाना कानून जुर्म है ये बात सभी जनाते है लेकिन खुलेआम इस कानून का उल्लंघन करने वाले बाज नही आते। बाल नियाजकों को उनकी गलती का अहसास दिलाने के लिए राजधानी के बच्चों ने उनकी शवयात्रा निकाली काले पहनकर बाल नियोजको की शवयात्रा निकालने के साथ साथ बच्चों ने गधांे और तख्तियों के जरिए भी अपना विरोध जताया। ढाबे रेस्त्रां आफिसों और घरों में बच्चों से काम न कराने के लिए सरकार ने कठोर कानून और योजनाऐ बना तो दी लेकिन इनका सही क्रियान्वयन न होने से बाल मजदूरी आज भी जारी है।
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